मजबूर मजदूर
श्रावणी स्टेशन पर बैठी अपनी ट्रेन की राह देख रही थी कि उसकी नजर दो प्लेटफॉर्म को जोड़ने वाले पुल पर गई। उसने देखा कि लोग यहां से वहां, अपने कंधों पर भारी सामान के लिए भाग रहे थे स्वतः नज़र पस बैठे बुज़ुर्ग पर गई जो उसे देख कर मुस्कुरा रहे थे। उसने पूछा कि, ‘दादा जी आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं?’ दादा जी को शायद अपनी बेटी श्रावणी में दिख रही थी.. जो वर्षों पहले यहीं किसी स्टेशन पर खो गई थी। वह एक हादसा था जो दादा जी आज तक भूले नहीं। श्रावणी को उत्तर देते वह बोले.. मैं तुम्हें कब से देख रहा हूं, तुम उस पुल की ओर बड़े ध्यान से देख रही हो… ऐसा क्यों ? श्रावणी उन्हें करण बताती है। करण सुन कर कुछ गंभीर शब्दो में वो बोले, “बेटा जो लोग भाग रहे हैं वो मजदूर हैं। “बड़े शहरों में अपने परिवार के भरण पोषण का स्वप्न लिए। इच्छा और आकांक्षा का भार उठाए , ’ एक मजबूर मजदूर है वो।’ पर उनमे कुछ अच्छे घर के लोग भी हैं? क्या वो भी मजदूर हैं? श्रावणी ने पुछा. दादा जी अब हंस पड़े वो बोले, हम सब मजदूर ही हैं। अपनी-अपनी जिम्मेदारी का बोझ लीजिए, मजदूर ही हैं हम। बस जीवन के भरन पोषण की फिक्र के लिए हम सबभी जी रहे। बिना सोचे की, मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं हो सकता है. एक आयाम के बाद दूसरा. जीवन सफल वो जो जन कल्याण के काम आये। मैंने जीवन के चालीस वर्ष एक सैनिक के रूप में देश की सेवा की। माना कि कोई बड़ा मकान नहीं है मेरा। पर दिल में माँ भारती सदा ही विद्यामान हैं। मेरी कमाई तो यही है. ऐसा कहते वो गर्व से अपनी मुछे मरोडते वहां से चले गए.
श्रावणी घण्टो दादा जी की बातों को सोचती रही।
" मनुष्य जीवन मजदूर मात्र ही रह गया है .हम अपनी जीवन शैली को सुगम बनाने के लिए ‘मजबूर मजदूर’ से जीवन रूपी पुल पर भाग ही रहे है . कब, किसकी, कोन सी गाड़ी आजाए कुछ नहीं पता। जीवन सफर की तरह है, क्या पता कल शाम जिसके साथ हम राजनीति पर चर्चा कर रहे थे अगली सुबह उसी की गाड़ी आजाए। " जीवन मूल्यवान है, सपनों से सजा एक खूबसूरत गुलिस्तां सा। ”