ख़लिश
·
sneha chaand
ख़लिश
कैसी ये ख़लिश है कि,
सुलझाते सुलझाते तुम्हे
पता नहीं क्यूं इतनी उलझ रही हूँ मैं।
कभी कभी तो इतना डर लगता है ना
कांपती रहती हूँ अंदर ही अंदर मैं।
आज कल तो मैं यही सोचती रहती हूँ कि
क्या मैं अपने आपको बचा रही हूँ, या तुम्हें।
अब बस, तुम संभल जाओ
और आगे मुझसे ना हो पाएगा
ये संभालना या सुलझाना।
- चाँद