Think-ink Club

अज़ियत

· sneha chaand

अज़ियत

तुमने तो थोड़ा ही माँगा था,
पर मैं दे बैठी हूं पूरी की पूरी।
अब ये मेरे बस में भी तो नहीं,
और तुम अपने आप पर काबू रखने को कहते हो!
क्या ये मुमकिन भी है?

पहले तो डर था फिसलने का
अब बेइंतेहान आसान है ये!
ऐसे ही…
तुम्हारी आंखों में,
तुम्हारे इन लफ्जों में,
तुम्हारी हसी में,
और कभी कभी तो
हमारे दरमियान जो खामोशी छा जाती है ना
इन्ही सब में गुम हूं मैं।

पर हां,
ऐसा भी तो नहीं के
मैं अब चैन से हूं!
अब डर है बिछड़ जाने का
जो एक ना एक दिन होना ही है।
कल तुम होंगे ही किसी और के!
अज़ियत ये ऐसी,
कभी ना सहपऊ मैं
और ना ही बच पाऊं इससे मैं।

फिर मैं अपने आप से पूछती हूं
क्या मैं तुम्हे कभी हासिल भी करना चाहती हूं?
कि ये खोने का डर पैदा होगया है अभी से।
ये कैसी कश्मकश है दिल में मेरे?
मेहरबानी होती अगर तुम इसे सुलझा देते ज़रा!

• चाँद